क्यों कर है मेरे दिल में घाव ना पुछ,
तू देख मेरे घावो में दर्द कितना है॥
कितना हुआ दवा का असर ना देख,
तू देख गहरा मेरा ज़ख्म कितना है॥
रच गयी जो मेरी आँखों में नमी,
उजड़ा मेरे ख्वाबो का शहर कितना है॥
ठहर गयी हूँ मैं जिंदगी के एक मोड़ पर ,
गुज़रा मेरी आँखों से तबाही का मंजर कितना है॥
पराई छत के नीचे ढ़ुंढ रही हूँ आसरा मैं,
हुआ गैर मेरा अपना घर कितना है॥
तू देख मेरे घावो में दर्द कितना है॥
कितना हुआ दवा का असर ना देख,
तू देख गहरा मेरा ज़ख्म कितना है॥
रच गयी जो मेरी आँखों में नमी,
उजड़ा मेरे ख्वाबो का शहर कितना है॥
ठहर गयी हूँ मैं जिंदगी के एक मोड़ पर ,
गुज़रा मेरी आँखों से तबाही का मंजर कितना है॥
पराई छत के नीचे ढ़ुंढ रही हूँ आसरा मैं,
हुआ गैर मेरा अपना घर कितना है॥
ऋतू सरोहा
3 comments:
...काश, मैं भी तुम्हारे जैसा ही शब्दों का जादूगर होता तो शयराने अंदाज़ में ही चार तारीफ़ कर देता.
क्या लिखती हो, रितु! कभी- कभी लगता है जैसे ख़ुद ही को पढ़ रहा हूँ. तुम्हें पढ़कर लगता है कि मैं अपनी रचना का आस्वादन कर रहा हूँ.
Bahut hi pyaara likhte ho aap ... bahut accha laga ... aap ka blog bhi kafi achha laga ... nicely maintained. keep writing... :)
Bahut hi badhia....
Khoob likha hai !!
na soch ke kitne log hai mere aas paas,
ye dekh ke ye shaks bheed mein bhi tanhaa kitna hai.....
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