Thursday, October 11, 2007

बंजर आंखें


बंजर हो गयी है आंखें मेरी
ना आंसू ,ना कोई ख्वाब पनपता है.....
झाँक के देखता है जब कोई
ना जाने इनमे क्यों ,बस दर्द झलकता है .........

ऋतू सरोहा


किसी दवा से ना भरेंगे

ज़ख्म जानती है...

बंजर मेरी आंखें फिर भी

ख्वाबों से पनाह मांगती है॥


ऋतू सरोहा

5 comments:

डाॅ रामजी गिरि said...

"बंजर आंखें "-आपकी इन khoobsoorat पंक्तियों se जगजीत-चित्रा की ग़ज़ल याद आगई--'दर्द बढ़ कर फुगां न हो जाये.....its simply amazing

अमिय प्रसून मल्लिक said...

अपने ही इक शे'र के माध्यम से राय देना चाहूंगा,

"मेरे तार-तार सीने का ये कैसा मंज़र है
सो गयी हैं सारी नसें, ये ज़मीं जो बंजर है
कोशिश न हो यहाँ फिर कोई गुल उगाने की,
यहाँ लहलहा रहा गुलशन-ए-खंज़र है."

कम शब्दों में बेबाक कथ्य, रितु जी!

अमिय प्रसून मल्लिक said...

बंजर हो गयी है आंखें मेरी
ना आंसू ,ना कोई ख्वाब पनपता है.....
झाँक के देखता है जब कोई
ना जाने इनमे क्यों ,बस दर्द झलकता है .........


kabhi dard ki dawa mile to apne is naachiz dost ke sath mil- baantkar aazmaana. main har baar aapki rachnaaon ka deewana ho jata hoon.

अमिय प्रसून मल्लिक said...

बंजर हो गयी है आंखें मेरी
ना आंसू ,ना कोई ख्वाब पनपता है.....
झाँक के देखता है जब कोई
ना जाने इनमे क्यों ,बस दर्द झलकता है .........


kabhi dard ki dawa mile to apne is naachiz dost ke sath mil- baantkar aazmaana. main har baar aapki rachnaaon ka deewana ho jata hoon.

स्वप्निल तिवारी said...

A nice thought interwoven nicly in a simple sher.....
Kash ye puri gazal hoti.......nice work